Friday, May 25, 2012

अपना घर

बहू की कही गई बातों के कारण वह सारी रात सो नहीं सका। सुबह सैर पर उसके मित्र ने पूछ ही लिया, “क्या बात है वेद प्रकाश, आज तुम्हारा मूड ठीक नहीं लग रहा। जरूर घर पर किसी ने कुछ कहा होगा।” “क्या बताऊँ भई! जब अपने जन्मे ही बेगाने हो जाएँ तो दूसरा कौन परांठे देगा। तुझे पता ही है कि रिटायरमेंट के कुछ समय बाद ही तुम्हारी भाभी तो भगवान को प्यारी हो गई थी…बस उसके बाद तो मेरा जीवन नर्क ही बन गया…।” “न… बात क्या हो गई?” मित्र ने पूरी बात जानने की उत्सुकता से पूछा। “बात क्या होनी थी… बस शाम को दोनों मियाँ-बीबी सिनेमा जाना चाहते थे…इसलिए जल्दी ही रोटियाँ बना कर रख दीं…बहू ने मुझे कहा– ‘पापा जी, रोटी खा लो’…।” “फिर?” “मैने कहा–‘बेटा, मुझे अभी भूख नहीं, बाद में आने पर दे देना।’…बस मेरे इतना कहने की देर थी कि बहू का गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ गया–‘न, हमें और कोई काम नहीं…रात को आकर रोटी दें…हमने सोना भी है…हमारी भी कोई लाइफ है…न आप ठीक से जीते हैं, न दूसरों को जीने देते हैं।’…और भी बहुत कुछ कहा…” बोलते-बोलते उसका गला रुंध गया। “देख भाई वेद प्रकाश! करना तो तुम अपनी मर्जी…मेरी तो यही राय है…तुम्हारे पास पैसे-टके की तो कोई कमी नहीं, पर औरत के बिना इस उम्र में आदमी की ज़िंदगी नरक बन जाती है। मैं तो कहता हूँ कि किसी ज़रूरतमंद पर चादर डाल ले…।” “तुम्हारा दिमाग तो खराब नहीं हो गया?… मैं इस उम्र में ऐसा काम करूँगा तो दुनिया क्या कहेगी?” “दुनिया की ज्यादा परवाह नहीं करते…सबको अपनी ज़िंदगी जीने का अधिकार है…और किसी वृद्ध-आश्रम में जाकर मरने से तो अपने घर में सुखी जीवन व्यतीत करना कहीं अच्छा है।” वेद प्रकाश अपने मित्र की बातों से सहमति-सी प्रकट करता अपने नए घर की तलाश में जुट गया।

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